बहराइच के कतर्नियाघाट वन्य जीव प्रभाग के मुर्तिहा रेंज के जंगल में स्थित लक्कड़ शाह बाबा की मजार पर हर साल जेठ महीने में लगने वाला मेला इस बार नहीं होगा। 16वीं शताब्दी से चली आ रही इस परंपरा पर वन विभाग ने पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है। मजार तक पहुंचने वाले सभी मार्गों—बिछिया, निशानगाड़ा, और मोतीपुर वन बैरियर—पर पुलिस, वन विभाग, और पीएसी की टीमें तैनात हैं, जो हिंदू और मुस्लिम जायरीनों को रोक रही हैं। यह मजार गुरु नानक देव से जुड़ी एक किवदंती के लिए भी प्रसिद्ध है।
मेले पर प्रतिबंध और जायरीनों की निराशा
लक्कड़ शाह बाबा की मजार बिछिया-मिहींपुरवा मुख्य मार्ग से 500 मीटर दूर जंगल में स्थित है। हर साल जेठ में यहां सालाना उर्स के दौरान मेला लगता है, जिसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, नेपाल, और अन्य क्षेत्रों से हजारों श्रद्धालु आते हैं। इस बार, वन विभाग ने मेले पर रोक लगा दी, जिससे जायरीन मायूस हैं।
वन विभाग का रुख
मुर्तिहा रेंज के रेंजर रत्नेश यादव ने बताया कि वाहनों को मजार तक जाने से रोका जा रहा है, लेकिन पैदल जियारत के लिए जाने वालों पर कोई पाबंदी नहीं है। हालांकि, मौके पर मौजूद जायरीनों का कहना है कि उन्हें भी मजार तक पहुंचने से रोका गया। वन विभाग ने कानून-व्यवस्था और जंगल में अतिक्रमण की आशंका के चलते यह प्रतिबंध लगाया है।
लक्कड़ शाह बाबा और गुरु नानक की किवदंती
लक्कड़ शाह बाबा का वास्तविक नाम सैयद शाह हुसैन था, जिन्हें लक्कड़ फकीर के नाम से भी जाना जाता है। सिखीवीकी ग्रंथ के अनुसार, उनकी कब्र पर 1010 हिजरी (1610 ईस्वी) में उनकी मृत्यु की तारीख अंकित है। यह संत सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह के समय में जीवित थे। मजार के पास ही गुरुद्वारा गुरुमल टेकरी स्थित है, जो इस स्थान को हिंदू, मुस्लिम, और सिख समुदायों के लिए महत्वपूर्ण बनाता है।
किवदंती: एक मुस्लिम संत (लक्कड़ शाह) फूस की झोपड़ी में गहन तपस्या कर रहे थे। उनकी आंखें धुंधली थीं, और वे चल नहीं पाते थे। उन्होंने गुरु नानक से प्रार्थना की, “हे वली पीर नानका, मैंने सुना है कि आप भगवान के सच्चे प्रतिनिधि हैं और भटके हुए लोगों को मुक्ति दिलाते हैं।” गुरु नानक ने संत से अपनी बंद आंखें खोलने को कहा। जैसे ही संत ने आंखें खोलीं, उन्हें साफ दिखाई देने लगा। गुरु नानक ने कहा, “तुम तप करते हुए लकड़ी जैसे हो गए हो। आने वाले समय में तुम्हें लक्कड़ शाह के नाम से जाना जाएगा।” 1610 में उनकी मृत्यु के बाद से यहां मेला लगने की परंपरा शुरू हुई।